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कोख पर चलती केँची पेशेवर डॉक्टरों के हाथ से और हर्जाना महज 6 हज़ार….

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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ढलती शाम की ताजी ताजी शीतल हवा में बड़े बड़े झूलों में झुलकर हवा से गले लगने जैसा अहसास, फिर एक साथ मस्ती में बेवजह ही आकाश की तरफ चिल्लाना उस पूरे परिवार को अत्यंत ही आनंदित कर रहा था ! आस पास पानी का पूल जिसमे पानी की तरंगे नृत्य करती हुई नागिन सी नज़र आ रही थी ! संध्या में सूरज का विदा होते होते अपना चेहरा पानी में देखना और मुँह गुस्से से लाल करना देखने वालो को इतना आकर्षित कर रहा था क़ि हर कोई कह रहा था एक तस्वीर मेरी भी.. एक तस्वीर मेरी भी ! चारों तरफ हरे भरे दरखतों के बीच में से झाँकती हुई अलग अलग रंगो के फूलों की डालियाँ ! सारांश में अगर कहूँ तो अत्यंत ही लुभावना व मनोहर वातावरण जिसके दृश्य मात्र से साधारण हृदय भी शैतानी करने को आतुर हो जाएँ ! बस कुछ दूर ही लगी खाने पीने की स्टॉल्स जिसमे आधुनिक सभी तरह के स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध थे ! चाहे गर्म पिज़्ज़ा हो या बर्गर, चाहे पावभाजी हो या सेंडविच, तरह तरह के चटपटे मसालेदार व्यंजन ! खुशियों के इस अद्भुत संगम का जहाँ हर कोई लुत्फ़ ले रहा था वही एक महिला अलग ही खड़ी खामोश सी थी हालाँकि वो उनके ही परिवार की बहू थी ! जो आँखों से सब परिवार वालों को आनंद में झूमते देखकर खुश तो बहुत हो रही थी लेकिन थोड़ी उदासी उसके मन में उस बेवसी को लेकर थी जिसके चलते वो बाकी सब लोगो की तरह उस आनंद में शरीक नही हो पा रही थी !
क्षमा चाहूँगा यहाँ जिसे मैं बेवसी शब्द से संबोधित कर रहा हूँ वो उस महिला के लिए बाकी सब लोग जो बाहरी आनंद में जी रहे थे उससे कही बेहतर भीतर का आनंद था जो एक माँ बनने की कल्पना मात्र से महसूस होता हैं एक महिला को ! सारगर्भीत बात ये हैं कि वो महिला उस वक़्त गर्भवती थी जो एक नन्हे कोमल पुष्प को संभालने और महफूज रखने की अपनी ज़िम्मेदारी के चलते उन बाकी सब लोगो के साथ बाहरी आनंद में शामिल नही हो पा रही थी ! अभी तो उसे पूरे 9 महीने बहुत संभलकर चलना हैं, पोष्टिक आहार लेना हैं जो भले ही उसकी जिहवा को स्वादिष्ट लगे या ना लगे, घर की सीढ़ियों पर आहिस्ता आहिस्ता संभलकर चलना हैं कही कोख में सोएँ कोमल पुष्प की आहट से नींद ना खुल जाएँ, बहुत सी चीज़ों का परहेज रखना हैं, बहुत सी चीज़ों का ख्याल रखना हैं, अपनी दैनिक दिनचर्या को बदलकर एक बड़ी तपस्या करनी हैं !
एक मंच पर एक अदाकारा जब 9 मिनिट तक अपने सर पर एक मटकी रखकर नृत्य करती हैं तब दर्शकों की तालियाँ उसके संतुलन की वाह वाही करने बज पड़ती हैं ! मगर उस अदाकारा की वाह वाही कभी नही होती जिसने घर के दैनिक कामों के साथ साथ 9 महीने तक एक बच्चे को पेट में रखकर एक बेहतर संतुलन दिखाया हैं !
अब मेरा लेख आता हैं अपने असली मुद्दे पर, जब 9 महीने के अपार त्यागों के बदले उसी नारी की कोख पर एक पेशेवर डॉक्टर की केँची चलती हैं तब हम सब कहाँ जाते हैं ? हम कभी ये क्यूँ नही सोच पाते कि वर्तमान में अधिकांश बच्चे महिला का ऑपरेशन करके ही क्यों होते हैं ? आज के इस दौर में अस्पतालों में 90% बच्चे ऑपरेशन से ही क्यों होते हैं क्या ये सोच का विषय नही हैं ? ये एक मजबूरी और आवश्यकता नही होती बल्कि ज़्यादातर अस्पतालों और डॉक्टरों का व्यापार बढ़ाने की एक सोची समझी रणनीति बन गयी हैं ! जिस रणनीति के चलते समाज में जिस महिला को हम सब बुलंदी पर देखना चाहते हैं उसी के स्वास्थ्य के साथ इतना बड़ा खेल जो महज कागज़ी टुकड़ो के स्वार्थ के चलते, विषय सोच का ही नही बल्कि शर्म का भी हैं ! कोख एक डाली की तरह होती हैं जो 9 महीने तक एक अंकुर को कोमल पुष्प में बदलने के लिए रोज विकसित करती रहती हैं और अंत में जब वो अंकुर पूरी तरह विकसित हो जाता हैं हम उस पुष्प को तोड़ने के लिए डॉक्टर को उस डाली को काटने तक की इजाज़त दे देते हैं क्योंकि हमारे पास भी शायद उस वक़्त कोई दूसरा रास्ता नही होता आख़िर हमने सुन जो रखा हैं कि डॉक्टर भगवान का दूसरा रूप होते हैं !
जब हमारा हिन्दुस्तान महिलाओं की सुरक्षा के लिए इतने कड़े कदम उठा रहा हैं तो इस मुद्द्दे की ओर किसी का ध्यान क्यों नही जाता ? सुरक्षा का मतलब सिर्फ़ यही तो नही कि उसको गली चलते आवारा लड़कों की गंदी हरकतों से ही बचाया जाएँ, सुरक्षा का मतलब यही तो नही कि उसको सरकारी नौकरी में आरक्षण दे दिया जाएँ, सुरक्षा का मतलब यही तो नही कि उसके लिए अलग से स्कूल कॉलेज खुलवा दिए जाएँ, सुरक्षा का मतलब यही तो नही कि उसके लिए अलग से सार्वजनिक शौचालय बनवा दिए जाएँ !
पहले बच्चे की स्थिति में ही उसकी कोख पर केँची चला दी जाती हैं हालाँकि उसकी आवश्यकता नही होती लेकिन आवश्यकता होती हैं कागज के टुकड़ों की…जिसके चलते ऐसे ऑपरेशन करने पड़ते हैं क्योंकि बिना ऑपरेशन लाख 50 हज़ार का बिल जो नही बना पाते अस्पताल वालें ! केँची चलाने वाला डॉक्टर ये तक नही सोचता कि इसकी वजह से आजीवन उसे कितनी पीड़ा सहन करनी पड़ेगी? आजीवन उसे कितनी बीमारियों से गुजरना पड़ेगा ? ये एक अनचाहा ऑपरेशन उसकी जिंदगी को अपाहिज बना देता हैं ! कोख पर हुआ घाव कही ना कही जिंदगी भर उसे हल्के हल्के दर्द का अनुभव कराता हैं ! 9 महीनों के इस त्याग के बदले जो खुशी के दिन का इंतजार वो महिला करती हैं उसी दिन उसके कोख पर केँची शायद उस खुशी की घड़ी में उसको एक जख्म ज़रूर दे जाती हैं जिसके चलते वो फिर इस असहज समय से गुजरना पसंद नही करती !
इस लेख के ज़रिए मैं समस्त पाठकों से एक गुज़ारिश ज़रूर करूँगा कि इस लेखन के पीछे का जो उद्देश्य हैं जो एक लेखक का अरमान हैं उसे सिद्द करने के लिए कृपया ऐसा ज़रूर प्रयास कीजीएँ जिससे ये मुद्दा सरकार तक पहुँचे और आगामी बजट में एक योजना इस मुद्दे पर भी हो सरकार की जिससे आगामी समय में होने वाले बच्चे बिना कोख पर केँची चले हंसते हंसते पैदा हो और माँ को उसके त्याग का एक सच्चा परिणाम मिले ! क्योंकि इतने बड़े त्याग का मात्र 6 हज़ार रुपये हर्जाना शायद अनुचित हैं मेरे हिसाब से बाकी सब तो जनता ज़्यादा समझदार हैं मैं तो महज एक लेखक हूँ जो दिल में आया लिख देता हूँ !
जितेंद्र अग्रवाल “जीत”
मुंबई..मो. 08080134259

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