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प्रथम विश्व युध “एक अविस्मरणीय भयानक मंज़र”

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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दोस्तो विचारों की कतार में एक विचार और पेश हैं आपके सामने…प्रथम विश्व युध जिसने पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था…उसकी शुरुआत और उससे जुड़ें कुछ तथ्यों को कविता के माध्यम से आप तक पहुँचना चाहूँगा….कविता रूपी माला में पिरोया हैं जिसे मैने शब्दों के छोटे छोटे मनके जोड़कर….
“गतिमान था विश्वत समूचा समय की रफ़्तार में
था आवागमन रोज खुशियों का पूरे संसार में
बरपा कहर एक रोज मगर साल 1914 की जुलाई में
मिटने लगा मानव निराधार विश्व1 की लड़ाई में
खून था हर आँख में हर हाथ में हाथियार था
सनी हुई थी धरा रक्त से लाशों का व्यापार था
एक तरफ ऑस्ट्रीया सर्बीया पर लेकर हथियार टूट पड़ा था
दूसरी तरफ जर्मनी भी रूस पर होकर उग्र तैयार खड़ा था
जापान इटली फ्रांस बेल्जियम का सीना भी तन चुका था
बदल गयी चिंगारी आग में अब ये विश्वयुध बन चुका था
संख्या मरने वालों की 15-20 मिलियन हो गयी थी
अकाल मौत के दहशत से हर आँख नम हो गयी थी
दौड़ रहे थे जर्मनी और ब्रिटेन भी युध की दौड़ में
कीमत चुकाई बहुत दोनो ने हथियारों की होड में
अर्थव्यवस्था बिखर कर तहस नहस हो रही थी
बीच देशों में हर रोज युध पे बहस हो रही थी
सब अपनी अपनी रणनीति बना रहे थे
खुद के खोदे खड्डे में खुद ही जा रहे थे
सब जगह मानव व परमाणु शक्ति का प्रदर्शन हो रहा था
कही हार का दुख तो कही जीत का जश्न हो रहा था
बुझने लगे चूल्हेु जब आफ़तों की बरसात में
हुई सजग महिलाएँ सारी एक ही साथ में
कुछ बैठी दफ़्तर में कुछ काम लगी दुकानों में
किया व्यापार कही किसीने बहाया पसीना कारखानों में
थामें औजार यहा तक कुछ कोमल हाथों ने
कुछ शामिल हुई सेना में भरने जोश जवानों में
कुछ मशीनों मे कपड़े सुनहरे बुन रही थी
जिसको जो मिला वो राह चुन रही थी
बेड़ियों में बँधी महिलाएँ अब काम करने जा रही थी
दूर बहुत घर से अब पेट बच्चों का भरने जा रही थी
घड़ी की भागती सुइयों के साथ साल बदल रहा था
नित नयी रोज विश्व का बिगड़ा हाल बदल रहा था
नफ़रत की आग अब आहिस्ता आहिस्ता शीतल हो रही थी
बढ़ने लगे कदम अब आगे पुरानी बात बीती कल हो रही थी
मगर कहर ये युधरूपी बहुत कुछ सीखा गया था सबको
पाठ शांति और एकता का चुपके से पढ़ा गया था सबको
दुश्मनी की दीवारें तो बड़े बड़े घर तोड़ देती हैं
प्रेम की गाँठ ही है जो सब कुछ वापस जोड़ देती हैं
आख़िर हुआ समापन युध का साल 1918 के नवंबर में
थी शांत धरती भी और छाया था सन्नाटा भी अंबर में ! “
लेखक- जितेंद्र हनुमान प्रसाद अग्रवाल “जीत”
मुंबई..मो.08080134259

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