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कागजों का काला दौर…..

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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एक दौर था सत्य का जब सत्यता साबित नही करनी पड़ती थी क्यूकीं उस दौर में झूठ का चलन नही था और झूठ सिखाया भी नही जाता था..जिसने जो भी बताया वो सत्य ही होता था शायद इसीलिए उस जमाने में ये कागजों की ज़रूरत नही पड़ती थी जैसे आज पहचान पत्र, जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र व विवाह प्रमाण पत्र की ज़रूरत पड़ती हैं…अभी तो आलम ये हैं कि ये सारी धरती कागजों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं चाहे वो काग़ज़ सत्यता साबित करने के हो या चाहे वो कागज रूपी रुपये हों..लोग कहते हैं इंसान की कदर होती हैं अरे भैया इंसान की कदर होती तो इंसान को खुद का परिचय देने में ही परिचय प्रमाण पत्र क्यूँ दिखाना पड़ता…जो माता पिता का परिचय प्रमाण पत्र दिया हुआ हैं वो क्यूँ नही चलता…आधुनिक दौर में सबसे मुश्किल जो काम हैं वो हैं सत्य को सत्य साबित करना..सत्य को सत्य साबित करने के लिए ही आजकल तो झूठ का सहारा लेना पड़ता हैं…उस समय तो खून के रिश्ते तार तार हो जाते हैं जब खून के रिश्तों को साबित करने के लिए ही ये कागज़ी दस्तावेज़ दिखाने पड़ते हैं वरना कोई मानने को तैयार ही नही कि ये इसका बेटा हैं या बेटी हैं…कभी कभी तो भैया नौबत डी एन ए जाँच की भी आ जाती हैं….कभी रेल में टिकट पर पुरुष की जगह भूल से अगर किसी ने स्त्री लिख दिया तो आपको आपका पहचान पत्र ही बचा सकता हैं ना कि पुरुष की दाढ़ी मूँछ ! अब अदालत में गीता पर हाथ रखकर कसम खाते हैं कि जो बोलूँगा सच बोलूँगा सच के अलावा कुछ नही बोलूँगा..अब जिसको झूठ बोलना ही हैं वो चाहे गीता पर हाथ रखे या सीता पर कोई फ़र्क नही पड़ता क्यूकीं गीता उसकी बहन तो हैं नही जो वो झूठ बोलने से पहले सोचेगा..वो दिन दूर नही जब भगवान धरती पर आकर अपने आपको भगवान बताएँ और लोग उनसे उनका परिचय पत्र माँगे…और भगवान को अपना परिचय पत्र बनवाने के लिए अदालतों और वकीलों के चक्कर काटने पड़े… ये सब परिवर्तन का ही एक हिस्सा हैं…लेकिन कोई ये नही जानता कि परिवर्तन सिर्फ़ तुम ही नही भगवान भी कर सकता हैं…कर क्या सकता हैं कर ही रहा हैं….दिमाग़ नाम की जो चीज़ भगवान पहले पूर्ति कर रहा था अब उसकी गुणवता में कुछ कमी कर दी हैं भगवान ने भी…ये भी एक परिवर्तन का ही हिस्सा हैं….वो भी आसमान से ज़मीन की तरफ देखकर हंसता होगा और कहता होगा “बेटा चाहे कितना भी पढ़ ले…कितना भी बढ़ ले….कुछ नही होने वाला…क्यूकीं दिमाग़ रूपी बर्तन जो दिया हैं उसमे छेद करके भेजा हैं परिवर्तन के तौर पर…अब डाल चाहे कितना भी इसमे…रहना तो खाली का खाली ही हैं…अभी तो शुरुआत हैं कही धीरे धीरे दिमाग़ रूपी अंग भगवान देना बंद ना कर दे…वरना वापस वही आ जाएँगे जहाँ से शुरू हुए थे…वही नंगा इंसान, वही जंगल और वही युग जिसमे ना तो ये महल होंगे ना ही ये तकनीकी साधन !

“झूठ की ताक़त के सामने सच मुझे कमजोर लगता हैं
चोरो की भीड़ में साहूकार भी आजकल चोर लगता हैं
लोगों को आदत हैं आजकल सुहाने झूठ में जीने की
सच कहूँ अगर में कभी तो सबको कठोर लगता हैं”
लेखक: जितेंद्र हनुमान प्रसाद अग्रवाल “जीत”
मुंबई..मो.08080134259

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