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मज़हब एक सोच अनेक….

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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अल्लाह की इबादत में झुकते जब रमजान में लाखों सर देखता हूँ !
उठते हाथों और झुकती आँखों में सच्ची दुआओं का असर देखता हूँ !

सच्ची इंसानियत और पक्का ईमान दिखता हैं मुझे रमजान में
जब सांझ को इफ्तारी के वक़्त घर की सीढ़ियों से उतरकर देखता हूँ !

सच कहूँ नाम पता मज़हब सब भूल जाता हूँ मैं तब
सारे मजहबों को जब दिल में एक साथ रखकर देखता हूँ !

हम सब एक हैं ,यकीन मुझे हैं इस बात का
पर तेरे विश्वास की खातिर मैं अपना खुदा बदलकर देखता हूँ !

निराकार मूरत एक हैं खुदा की, फिर भी अलग अलग दिखता हैं
वो ढल जाता हैं उसी रूप में, उसको मैं जिस नज़र देखता हूँ !

सार और नतीजा एक हैं मगर, हैं इबादत के तरीके अलग अलग
चाहे तू मंदिर जाकर देख और मैं मस्जिद जाकर देखता हूँ !

दुआ कबुल तेरी भी होगी और दुआ कबुल मेरी भी होगी
चाहे तू सर उठाकर देख और मैं सर झुकाकर देखता हूँ !

चल आ साथ मेरे आज खुदा को ढूँढने निकलते हैं
तू अंधेरे में खोज और मैं दीपक जलाकर देखता हूँ !

देखकर हमें शायद वो कही गायब ना हो जाएँ
तू सामने से आ और मैं छुपकर पीछे से आकर देखता हूँ !

वो बसता हैं “जीत” वही, जहाँ प्यार पल पल पलता हैं
आ तू मेरा हाथ पकड़ और मैं तुझे गले लगाकर देखता हूँ !

लेखक:- जितेंद्र हनुमान प्रसाद अग्रवाल
मुंबई मो.08080134259
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