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फ़ुर्सत मिले तो सोचना…..

शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं...
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बचपन में गाँव में गली मोहल्ले में लड़ते हुए छोटे भाइयों को देखता था बहुत बार..वो लड़ाई में इतने गंभीर हो जाते क़ि एक दूसरे को माँ बहन और बाप की गालियाँ देने लग जाते …और ये बिल्कुल भूल जाते क़ि हम भाई हैं और हम दोनो के माँ बाप और बहन एक ही हैं..शायद यही कुछ हिंदू मुसलमान भाई बंधुओं के साथ हो रहा हैं..दोनो धर्म की लड़ाई में इतने मशगूल और मग्न हैं क़ि ये भूल चुके हैं क़ि हमारी भी माता जो की भारत भूमि हैं एक हैं और पिता जो ईश्वर अल्लाह गुरुनानक यीशू स्वरूप एक ही हैं नाम हमने अलग अलग दे रखे हैं प्रेम स्वरूप जैसे घर में कोई प्रिय होता हैं उसको सब अलग अलग नाम से बुलाते हैं और बहिन जो क़ि गीता क़ुरान और बाइबल हैं सब एक हैं…लेकिन शायद हमारा ध्यान इस तरफ आजकल जाता नही हैं ! बयानबाज़ी और बोलने की आज़ादी का असली दौर आजकल चल रहा हैं जो भी मन में आता हैं हर कोई बोल जाता हैं और महापुरुष उस पर इस तरह मंथन करने लग जाते हैं जैसे वो मुद्दा कोई बहुत चिंता का हो..आपको जानकारी होगी क़ि जब सर्प काट लेता हैं तो जहर और ज़्यादा शरीर में फैले नही इसके लिए हम वो हिस्से को किसी कपड़े से बाँध देते हैं ताकि वो आगे नब्ज़ में और ना फैले..इसी तरह जब ईर्ष्या और द्वेषरूपी सर्प अपने को काट ले और अपनी जीभ जहर उगलने लग जाए तो हमें चाहिए क़ि हम उस जहर को अपने तक सीमित रखे आगे ना फैलने दे..कोई बिखरी हुई चीज़ वही अच्छी लगती हैं जो चीज़ अच्छी होती हैं जैसे शादी के अवसर पर फूल बिखरे हुए ही अच्छे लगते हैं सोचो अगर वहाँ फूल की जगह गोबर बिखरे तो अच्छा लगे क्या ? कन्हैया हार्दिक पटेल जैसे लोग आदर्श बन रखे हैं जैसे इन्होने कोई शेर का शिकार अकेले कर लिया हो…जब पकड़े जाते हैं तब गीदड़ की तरह रोना रोते हैं और ऐसे शेर बने फिरते हैं अगर ये सब आदर्श हैं तो महाराणा प्रताप जैसे सेंकडो योधा को आप क्या कहेंगे ? शायद उनके खून में पानी था उनकी कहानियाँ झूठी हैं या फिर अपनी सोच शून्य हो गयी या फिर हमारा दुर्भाग्य हैं जो हमें आज कन्हैया जैसे लोगो को आदर्श मानना पड़ रहा हैं….इन्हे कुछ मानने से अच्छा तो हैं क़ि हम अपने पूर्वज को माने क्यूकी उन्होने भी संघर्ष बहुत किया हैं बहुत सी लड़ाइयाँ जीती हैं बहुत से इम्तिहाँ दिए हैं अपने लिए…शायद अब वक़्त हैं हमें कही किसी कोने में जाकर आत्म विचार करने का, जहाँ ना तो मीडिया की आवाज़ गूँजती हो ना किसी की व्यक्तिगत विचारधारा सुनने की मिलती हो..फिर अगर एक पल के लिए ही हमे लगे की जो हो रहा हैं सब सही हैं तो बहने दो ऐसे ही खून की धाराएँ और रोने दो ऐसे ही लाचारों को..जब जमीर ही जिंदा ना हो तो ये महल ये आशियाना किस काम का…याद रहे हम उन बदनसीबों में से हैं जो हाथ में आई एक रोटी को ठोकर मारके छप्पन भोग करने की आशा रखते हैं ….

“है लहर से लहर जुदा मगर समंदर तो एक हैं
हिंदू मुस्लिम हैं आँखें दो मगर पैगंबर तो एक हैं
अलग अलग चेहरो से मिलकर बना हैं समाज
चाचा बाबा के रिश्ते हैं जुदा मगर घर तो एक हैं ”

लेखक:- जितेंद्र हनुमान प्रसाद अग्रवाल
मुंबई मो.08080134259main-qimg-0184588f69d7edee876d2f07a8f17574

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